कहानी गोत्र विवाह की।

बिहार में एक जिला है "मधुबनी", और यही स्थित है प्रसिद्ध आर के काॅलेज। आप यदि कभी गये हों तो आपको मालूम होगा कि आसपास के सभी बच्चों का सपना होता है कि उसका नामांकन आर के काॅलेज में किसी तरह हो जाये।

चूंकि आसपास के क्षेत्रों में अधिकांश मैथिल ब्राहम्ण रहते है, तो स्वाभाविक रूप से उन्हीं के ज्यादातर बच्चे यहां पढते है। अन्तिम वर्ष में पढाई कर रहा रूपक भी आर के काॅलेज का ही छात्र है, लेकिन उसकी आज एक ऐसी समस्या है जिसका कोई समाधान नही निकल रहा। समस्या है उसी के क्लास में पढने वाली एक लड़की जिसका नाम है " पूनम"। अब यहां मैं आपको कोई इनकी प्रेम कहानी नही बताने जा रहा, क्योकि इन दोनों की बातें प्रेम कहानी से आगे पहले ही बढ़ चुकी है।

समस्या यह है कि दोनों एक परंपरागत मैथिल ब्राहम्ण परिवार से ही आते है, और यदि आप इस समाज के बनावट से परिचित हो तो आपको पता होगा कि सत्तर प्रतिशत मैथिल ब्राहम्ण एक ही गोत्र "वत्स" से आते हैं। इन दोनों के साथ भी यही समस्या है कि अब बात आगे कैसे बढ़े? क्योंकि दोनों के माता पिता इसे विलकुल स्वीकार नही करेंगे।

तभी इस कहानी में एक देवदूत का प्रवेश होता है प्रो. शुक्ला जी का। वैसे तो शुक्ला जी हिन्दी के प्रोफेसर है, लेकिन इसका फायदा यह है कि उनसे सभी विषयों के छात्रों का सम्पर्क हो जाता है, क्योकि हिन्दी प्रत्येक छात्र का एक विषय जरूर होता है।

अब स्वाभाविक है शुक्ला जी को भी रूपक की समस्या का पता चल ही जाता है। शुक्ला जी ने दोनों के माता पिता को बुलाया, सभी बातें बताई, लेकिन दोनों का वही तर्क एक ही गोत्र में शादी होने से संतान अपंग या बिमार पैदा होती है।

तभी शुक्ला जी ने अपनी ज्ञान गंगा बहाई। कहा " आपलोगों ने अर्जून और सुभद्रा का नाम जरूर सुना होगा, दोनों सबंध में भाई बहन थे। लेकिन उनका पुत्र "अभिमन्यु" दूसरे को नही मिला। फिर यह किसी भी रिसर्च में अभी तक साबित नही हुआ है कि गोत्र में विवाह नही करना चाहिए। सबसे बड़ी बात कि ये दोनों अपने सम्बन्ध से खुश हैं,

फिर आपलोगों को कोई दिक्कत क्यों होनी चाहिए? पता नही प्रो. शुक्ला के बातों में क्या जादू था कि दोनों के माता पिता का विरोध धीमा पड़ता गया, रूपक और पूनम वहां से हाथ में हाथ डाले आर.के काॅलेज के सामने वाली शड़क पार करते हुये सामने ही अवस्थित जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय में अपनी शादी को रजिस्टर्ड करवाने चले गये।
लेखक
सतीश झा
(वरिष्ठ स्तंभकार)

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