अलका (भाग -3): by Anant saraswat

अलका (भाग -3)
हम खुले आसमां के नीचे बैठे हुए थे...चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ था...उसके चहरे पर चांद की चांदनी गिर रही थी... आज पूर्णिमा की रात थी... वो हमेशा की तरह बेहद खूबसूरत लग रही थी...उसके लट उसके गालों को छू रहे थे ...




उन्हें वो बार बार संभाल रही थी... बचपन मै मुझे परी की कहानियां सुनने और पढ़ने का शौक था और आज अपने सामने उस परी को देखकर मुझे कुछ देर तक यकींन नहीं हुआ था...अगर प्यार की बात करू तो कोई भी व्यक्ती जब वास्तविक प्यार में होता है या पड़ता है... तो उसके सामने जो अहंकार का कवच होता है...






वह जल जाता है और उसके बाद व्यक्ति सत्य के रास्ते पर निकल जाता है...सत्य का सफर थोड़ा मुश्किल होता है लेकीन वह आनंददाई होता है...उसके अंदर जो भी अंधकार होता है...वह धीरे धीरे उजाले में परवर्तित होता है... और वह सत्य के रास्ते पर निकल जाता है...वास्तविक प्यार की यही हकीकत होती है...






जिसे मैंने महसूस किया था...अभी हम दोनों एक दूसरे के सामने बैठे हुए थे... दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी... धड़कन की आवाज़ कानों में गूज रही थी...मुझे पहली बार महसूस हुआ था...इंसान की मशीनरी भी किसी इंजन की तरह आवाज़ करती है...ठंडी हवा उसे छूकर जा रही थी...कुछ पल के लिए मुझे उस हवा से भी नफ़रत हो गई थी...उसके गुलाबी होंठ थर थर ठंड से कांप रहे थे...वो बस यही चाहती थी...





मैं हमेशा खुश रहूं और तरक्की करू... लेकीन मैं नहीं चाहता था... वो मुझ से दूर जाए... लेकिन आज मेरा हृदय परवर्तित हो चुका था...मुझे अब समझ आ चुका था...प्यार दुनिया का सबसे पवित्र बंधन है...प्यार वो शक्ति है... जो आपके लिए हर बंधन तोड़ सकता है... परंतु खुद किसी बंधन में नहीं फसता... आप उसे खुले आसमां में उड़ने दीजिए... पृथ्वी पर रहने वाले हर जीव को खुला आसमां पसंद होता है...






अगर हम किसी जीव अर्थात आत्मा को कैद करते हैं...तो यह उस जीव अर्थात आत्मा के प्रति अन्नाय होता है... जिस प्रकार हम पर हम स्वतंत्र रहना पसंद करते हैं... उसी प्रकार दूसरा भी उसी स्वतंत्र रूप से जीवन पसंद करता है...अगर आज के दौर की बात करे तो ज्यादातर का जो प्यार होता है...उसमे हम एक दूसरे को जंजीरो के जाल मै जकड़ देते हैं...तो वह प्यार एक सीमित वक्त मैं समाप्त हो जाता है...



काफ़ी वक्त बीत चूका था...अभी तक हम दोनों ने एक दूसरे से एक शब्द तक नहीं बोला था... यह एक ऐसा अहसास था...हम बिना शब्दों के एक दूसरे से बहुत सारी बातें किए जा रहे थे... कहतें है जब किसी को दिल से चाहो तो पूरी कायनात साथ देने मै जुड़ जाती है... मैं उसे छूकर देखना चाहता था...मुझे अभी ऐसा लगा था...शायद में एक परी का सपना देख रहा हूं...जैसे ही मैंने उसे छूने को हाथ बढ़ाया था... मुझे अपने हाथ गंदे लगने लगे थे और मैं रुक गया था...मैं उसे अपने हृदय से लगाना चाहता था...




बस मेरी यही कोशिश थी...काश ये वक्त ठहर जाए और मैं उस परी को देखता रहूं...आज तो वक्त भी धोखेबाज लग रहा था... रेत की तरह हाथ से फिसलता जा रहा था... मैं उसे रोकना चाहता था...दुनियां की हर खुशी इसकी हो... हर दुख मेरा...बस यही ख्याल मेरे आ रहा था ...जब उसने मुझसे दूर जाने को कहा तो...कुछ देर के लिए ऐसा लगा जैसे सासों ने साथ देने से इंकार कर दिया हो...



उसके बिना मेरा जीवन, मेरा संसार,मेरा दायत्व सब निरर्थक और निराधार था...जब भी मैं अपना अधिकार उस पर व्यक्त करता था और उन अधिकारों की वह मुझे मान्यता देती थी...कभी वह मुझे डांटकर तो कभी गुस्सा करके अपना अधिकार व्यक्त करती थी...एक तरह वही मेरी दुनिया थी... शायद वह मुझे एक उत्तम (perfect) व्यक्ति बनाने की कोशिश कर रही थी...लेकिन कुछ दाग़ ऐसे होते हैं...




जिन्हें हम एक बार के जीवन मै साफ़ नहीं कर सकते और न ही हम उन से भाग सकते हैं...शायद मैं उसे धोखा दे रहा था... स्वार्थी व्यक्ती अपने क्षणिक सुख के लिए किसी भी स्तर पर जा सकता है...यही मेरा हाल था... मैं उसे खोना नहीं चाहता था...इसलिए झूट पे झूट बोले जा रहा था... अब तक मैं स्वार्थी था....




लेकिन वो तो स्वार्थ से परे थी...अब मैं चाहकर भी स्वार्थी नहीं हो सकता था... और उसे धोखा नहीं दे सकता था...उसे धोखा देना मतलब सारे संसार को धोखा देना था... ईश्वर को धोखा देना था और इन सब से पहले खुद को धोखा देना था...मैंने उसे सब बता दिया था... जो मेरे जीवन में चल रहा था....आज उसके दिल को गहरा दुःख पहुचा था... उसे अपने आप से नफ़रत हो गई थी... मैंने उसके अटूट विश्वास को तोड़ा था...





वो मुझ से दूर जाना चाहती थी... बहुत दूर... मैं चाहकर भी आज उसे रोक नहीं सकता था... पूर्णिमा का चांद अब अमावस का काला चांद दिखने लगा था... इसके बाद वो मुझ से दूर होती जा रही थी...बहुत दूर ... वो मुझ से बहुत दूर जा चुकी थी... मुझे अहसास हो गया था...इसके लिए अब मैं प्रायश्चित करना चाहता था...




इसके लिए मुझे इस भीड़ भरी दुनिया से दूर जाना था...लेकिन मेरी लिए इतना आसान कहां था... अभी कई काम बाकी थे...जिसके लिए अभी कई लोगों को रूबरू होना था...उसका दूर होना मेरी बर्दास्त के बाहर होता जा रहा था...एक तरह से मैं पागल होता जा रहा था... पहले तो पीने के बाद सुकून मिल जाता था...


जाने से पहले उसने न पीने की सौगंध ली थी...लेकिन मैंने उसे भी तोड़ दिया था... अब तो पीने के बाद भी सुकुन भी नहीं मिलता था... जिस तरह मछली बिना पानी के तड़पती है... उसके बिना मेरी भी वही हालत थी... लेकिन कुछ कहानी इतनी जल्दी कहां खत्म होती है.... अब आगे.......

अनंत सारस्वत
(लेखक सुप्रसिद्ध अभिनेता है)

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